स्वाभिमान की एक रोटी

सविता जी धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई अपने घर की ओर जा रही थीं, जब पड़ोस में रहने वाली सरिता जी ने उन्हें देखा। “अरे दीदी, क्या हुआ? लगता है आपके घुटनों में दर्द ज्यादा है,” सरिता जी ने चिंता जताई।

सविता जी ने मुस्कुराने की कोशिश की और कहा, “हाँ, उम्र का असर है, दर्द तो होता ही रहता है। दवाइयाँ लेने गई थी, वरना घर पर ही आराम कर रही थी।”

सरिता जी ने सुझाव दिया, “तो आप अकेले क्यों गईं दवा लेने? रोहित को ले जातीं।” सविता जी चुप रहीं। कैसे बतातीं कि बेटा उनके साथ नहीं जाता? सरिता जी को उनके घर की हालत मालूम थी, इसलिए उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा।

सविता जी लँगड़ाते हुए अपने घर पहुंचीं और देखा कि उनके कमरे का सामान ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो रहा था। एक पल के लिए वह चौंक गईं, लेकिन फिर पूछा, “अरे, मेरा सामान ऊपर क्यों ले जा रहे हो? मेरा कमरा तो नीचे है।”

“था मम्मी जी, अब नहीं है। हमें उस कमरे की ज़रूरत थी,” उनकी बहू रजनी ने बेरुखी से जवाब दिया।

“पर मेरे घुटनों में दर्द रहता है। सीढ़ियाँ चढ़ना-उतरना मुश्किल है,” सविता जी ने समझाने की कोशिश की।

“बाहर घूमने जाने में आपके घुटनों में दर्द नहीं होता। ऊपर-नीचे होने में ही दर्द होता है,” रजनी ने तंज कसते हुए कहा।

“मैं घूमने नहीं गई थी, बहू। दवाइयाँ लेने गई थी,” सविता जी ने सफाई दी।

“देखिए मम्मी जी, मेरी बहन आ रही है। दो साल के कोर्स के लिए उसे यहां रहना होगा, इसलिए आपका कमरा खाली कर रहे हैं,” रजनी ने निर्णय सुनाया।

“तो उसे ऊपर वाला कमरा दे दो। वो जवान है, ऊपर आराम से रह सकती है,” सविता जी ने सुझाव दिया।

“मेरी बहन उस छोटे से कमरे में रहेगी? हमारी भी कोई इज्जत है। आप मुझे मना करने वाली कौन होती हैं? घर हमारा है, खर्चा हम उठा रहे हैं,” रजनी ने तीखे स्वर में कहा।

सविता जी की आंखों में आंसू आ गए। उनका बेटा रोहित खड़ा था, लेकिन चुप था। सविता जी को बेटे की चुप्पी सबसे ज्यादा चुभ रही थी।

सविता जी ने हिम्मत कर कहा, “जब तुमने मेरा कमरा लिया था, मैंने कुछ नहीं कहा था। पर अब तुम मुझे स्टोर रूम में रहने को कह रही हो।”

“शुक्र मनाइए कि स्टोर रूम में रहने को कह रही हूँ, वृद्धाश्रम नहीं भेज रही। एक तो हमारा ही खाती हो, ऊपर से हमें ही सुना रही हो,” रजनी ने ताना मारा।

सविता जी का धैर्य जवाब दे गया, “बहू, यह घर मेरा है। तुम इसे दहेज में नहीं लाई थी। चुपचाप कमरा खाली करो।”

“घर का खर्चा हम उठा रहे हैं तो आपकी बातें क्यों सुनें?” रजनी ने प्रतिवाद किया।

“आज से खर्चा करने की जरूरत नहीं। अगर रहना है तो किराया दो या घर खाली करो,” सविता जी ने दृढ़ता से कहा।

“मम्मी, तुम अपने बेटे को घर से निकालने की बात कर रही हो?” रोहित ने कहा।

“वाह बेटा! जब तुम्हारी बीवी मेरी बेइज्जती कर रही थी, तब तुम चुप थे। मैंने किराया देने की बात क्या कही, तुम्हें सुनाई देने लगा। अब तक यही सोचती रही कि काश एक दिन तुम मुझे समझोगे, पर वह दिन नहीं आया। अब मुझे बेइज्जत होकर साथ रहने से अच्छा है स्वाभिमान के साथ अकेली रहना। अब फटाफट निर्णय लो और कमरा खाली करो,” सविता जी ने कड़ा फैसला सुनाया।

बेटा-बहू की हालत खराब हो गई। इतनी जल्दी कहां जाएंगे? दोनों फटाफट माँ के पैरों में पड़ गए, “हमें माफ कर दो मम्मी। प्लीज हमारे साथ ऐसा मत करो।” पर सविता जी ने मन पक्का कर लिया था।

अगले दिन, रजनी और रोहित ने सविता जी से माफी मांगी और वादा किया कि अब वह उन्हें परेशान नहीं करेंगे। सविता जी ने उन्हें माफ कर दिया लेकिन यह स्पष्ट कर दिया कि उनके घर का खर्च अब से उनका खुद का होगा और वह अपने स्वाभिमान के साथ रहना चाहती हैं।

समय के साथ, रजनी और रोहित ने समझ लिया कि सविता जी के निर्णय ने उन्हें भी सिखाया है कि रिश्तों में सम्मान और स्वाभिमान का महत्व क्या होता है। वे अपनी मां के फैसले की इज्जत करने लगे और अपनी जिंदगी में उनके सहयोग का महत्व समझने लगे।

सविता जी ने किराए पर एक कमरे में रहने वाले व्यक्ति को जगह दी और अपने जीवन का नया अध्याय शुरू किया। उन्होंने अपने आत्मसम्मान को बनाए रखा और अपनी जिंदगी को खुशी से बिताने का निर्णय लिया। उनके इस फैसले ने उन्हें एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास दिया, जिससे वह अपनी जिंदगी को एक नई दिशा में ले जा सकीं।

इस प्रकार, सविता जी ने अपने स्वाभिमान को बनाए रखते हुए अपनी जिंदगी की कहानी को एक नई दिशा में मोड़ दिया, जहां उन्होंने साबित किया कि स्वाभिमान की एक रोटी, निरादर की दो रोटी से कहीं अधिक मूल्यवान होती है।