बचपन में, जब भी मां गेहूं, चावल, दालों को साफ करने बैठती थीं, हम बच्चों का मन खेल में लग जाता था। अक्सर हम मां की जाँच में उलझे हुए दाने कौड़ी की तरह उछालते और फिर उसे लपकने की कोशिश करते। इस खेल में हम एक के बाद एक दानों को उड़ाते जाते, जिससे मां को भारी डांट पड़ती थी। मां की डांट सुनकर हमें समझ में आता था कि अन्न के साथ ऐसा व्यवहार उचित नहीं है। मां बताती थीं कि अन्न से खेलने से उसका अपमान होता है और भगवान नाराज हो सकते हैं।
मां की यह आदतें हमें बचपन से ही प्रभावित करती थीं। हम हमेशा देखते थे कि जब भी मां भोजन बनाती थीं, वे चावल, दाल का एक अंश निकालकर चूल्हे के ऊपर से घुमा कर अग्नि में डाल देती थीं। यह परंपरा हमें भले ही समझ में नहीं आती थी, लेकिन इसे देखकर हम भी धीरे-धीरे इसे अपनी आदतों में शामिल कर चुके थे। आज भी जब मैं भोजन बनाती हूं, गैस चूल्हे पर होने के बावजूद, मैंने इस परंपरा को निभाना जारी रखा है। भले ही अग्नि देवता के लिए भोजन समर्पित नहीं होता, लेकिन चूल्हे के ऊपर जरूर रखती हूं।
हमारे बुजुर्गों की आदतें भी बहुत महत्वपूर्ण थीं। मेरे दादा-दादी भोजन से पहले थाली को नमन करते थे और चावल की एक पिंडी पालतू पशुओं के लिए रख देते थे। यह आदत हमें भी सिखाई गई थी और हमने इसे अपनाया। मेरे दादा नहाने के बाद लकड़ी की बनी पीढ़ी पर बैठकर भोजन करते थे और मेरी मां भी हमेशा जमीन पर बैठकर ही भोजन करती हैं।
हमारे घर में फसल की खेती के दौरान भी विशेष धार्मिक अनुष्ठान होते थे। फसल शुरू करने से पहले खेत का पूजन किया जाता था और फसल तैयार होने के बाद उसे काटने से पहले भी पूजन किया जाता था। जब फसल कटकर घर आती थी, तब नवान्न की परंपरा निभाई जाती थी। नवान्न का अर्थ होता है नए अन्न का सेवन, जो कि एक खास धार्मिक अनुष्ठान के साथ किया जाता है। इस अवसर पर बढ़िया भोजन बनता था और घर के सारे सदस्य एक साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते थे। भोजन के बाद, हम आयु अनुसार एक दूसरे के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते थे।
यह परंपराएं केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं थीं, बल्कि वे हमारे जीवन के महत्वपूर्ण हिस्से थीं। वे हमें अन्न के प्रति सम्मान और आभार सिखाती थीं। फसल की पूजा और नवान्न जैसे अनुष्ठान अन्न के प्रति हमारी कृतज्ञता और सम्मान को दर्शाते थे।
अन्न की इस धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा को समझते हुए, हमें यह अहसास होता है कि अन्न केवल भोजन नहीं है, बल्कि यह हमारी परंपरा, संस्कृति और आस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हमारे बुजुर्गों की आदतें और परंपराएं हमें सिखाती हैं कि अन्न का सम्मान करना हमारी जिम्मेदारी है।
यही कारण है कि कहते हैं: “उतना ही लो थाली में, व्यर्थ न जाए नाली में।” इस कहावत का तात्पर्य है कि हमें अन्न का उचित उपयोग करना चाहिए और इसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। अन्न का अपमान न करना, उसे बर्बाद न करना और उसकी कीमत समझना हमारी संस्कृति का एक अहम हिस्सा है।
इस प्रकार, अन्न के प्रति सम्मान केवल धार्मिकता का मामला नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर और मानवीय मूल्यों का भी हिस्सा है। अन्न का सही उपयोग और सम्मान करना हमें हमारी परंपराओं से जोड़ता है और हमें जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देता है।