असली बोझ

मैंने रीमा के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, “रीमा! आज तुम कुछ परेशान लग रही हो?” उसने मुझे घूरते हुए कहा, “आपको क्या! चाहे बेटी ट्यूशन से फीस न देने की वजह से भगा दी जाए, या बेटे को जूते न होने की वजह से स्कूल टीम में खेलने से मना कर दिया जाए! आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। आपको तो बस सुबह 9 बजे जाने और शाम को 8 बजे आने की पड़ी है, फिर सोने की। मेरी परवाह कभी नहीं की। डॉक्टर ने पिछले महीने दवाई लिखी थी, पर नहीं, अब बीमारी बढ़ सकती है। कभी मेरा चेहरा देखा है? झुर्रियां, सफेद बाल! एक पुराना कूलर तक नहीं खरीद सकते आप!”

मैंने सिर झुका लिया, अपनी नाकामी पर शर्म महसूस करते हुए। बीवी-बच्चों की देखभाल मेरी जिम्मेदारी थी, पर महंगाई और बेरोजगारी की वजह से मैं दबता जा रहा था। घर के बिल और राशन की कीमतें बढ़ रही थीं, और ऑफिस में पगार बढ़ाने के बजाय नौकरी जाने की धमकी मिल रही थी। मैं लाचार था। इसी बीच दरवाजे पर किसी के आने की दस्तक हुई। बच्चे दरवाजा खोलने दौड़े, देखा तो पिताजी थे। बच्चों ने खुशी से उछलकर उनका स्वागत किया, लेकिन मैं तनाव में आ गया। पत्नी ने मेरी तरफ देखा जैसे कह रही हो, “अब क्या होगा?”

मैंने नजरे चुराते हुए पिताजी का स्वागत किया और चरण स्पर्श किए। रीमा ने भी पैर छूकर उन्हें खाना खाने को कहा और रसोई में चली गई। मैंने अकेला महसूस किया। रीमा ने मुझे फिर याद दिलाया कि पिताजी आर्थिक मदद के लिए आए होंगे। उसने ताना मारा, “जब देने का वक्त होता है, हम याद आते हैं। बड़े भाई साहब नहीं।”

रीमा की तंगी के कारण वह इस तरह बात कर रही थी, लेकिन मैं जानता था कि ऐसा बोलना उसकी फितरत नहीं थी। मैंने रीमा से कहा, “तुम शांत हो जाओ। मैं कल दवाई और बच्चों के सामान का इंतजाम करूंगा। लेकिन अभी पिताजी का मान रखो।”

रीमा समझदार थी, लेकिन तनाव में थी। उसने कहा, “कहाँ से लाओगे? भीख मांगकर या गिरवी रखकर?”

“यह मेरा काम है। तुम बस अभी भगवान के लिए शांत हो जाओ,” मैंने उसे शांत किया। फिर वह खाना लाने लगी। हम सब मिलकर खाना खाने लगे।

खाना खाते समय पिताजी ने मुझसे कहा, “देखो, खेती का काम जोर पकड़ रहा है, इसलिए मुझे आज ही वापस जाना होगा। तुम्हारी माँ चिंतित थी कि तुम फोन पर कम बात कर रहे हो। मुझे भी मुन्ना और मुन्नी की याद आ रही थी, इसलिए आया हूँ।”

यह सुनकर मैं थोड़ा राहत महसूस करने लगा, लेकिन फिर भी चिंता बनी रही कि पिताजी आगे क्या कहेंगे। खाना खत्म कर पिताजी ने जेब से नोटों की गड्डी निकाली और मेरी ओर बढ़ाई। मैं हक्का-बक्का रह गया। उन्होंने कहा, “अरे पकड़ो भी! इतने बड़े नहीं हो गए हो कि हमारी आशीर्वाद को मना कर दो। फसल अच्छी हुई है, इसलिए कोई दिक्कत नहीं है। बहू और बच्चों का ध्यान रखो।”

मेरी आँखें भर आईं। बचपन के दिन याद आ गए जब पापा स्कूल जाते वक्त हमें कुछ पैसे ऐसे ही देते थे। लेकिन अब मेरी आँखें शर्म से झुकी हुई थीं। रीमा और मैं गलत साबित हो चुके थे। सच में, बच्चों के लिए माता-पिता बोझ हो सकते हैं, लेकिन माता-पिता के लिए बच्चे कभी बोझ नहीं होते। वे हमेशा अपने बच्चों का ख्याल रखते हैं।

माता-पिता के लिए बच्चे कभी बोझ नहीं होते, वे हमेशा अपने बच्चों का ख्याल रखते हैं।

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