निखिल बहुत परेशान था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह इस स्थिति से कैसे निपटे। वह अपनी माँ को बहुत चाहता था, किंतु उसकी पत्नी और बच्चे उसकी माँ से बहुत दूर भागते थे, क्योंकि उसकी माँ की एक आंख नहीं थी, साथ ही उसकी कमर भी 90 डिग्री पर झुकी थी। वैसे वह अपना काम खुद कर लेती थी, किंतु फिर भी वह उसकी पत्नी और बच्चों के लिए हमेशा खटकती थी।
“दादी, आप ऊपर के कमरे में जाओ, मेरे दोस्त आ रहे हैं,” निखिल के बेटे अर्जुन ने बड़े बेरुखी से कहा।
“पर बेटा, मैं तो यहाँ बहुत दूर बैठी हूँ,” निखिल की माँ ने बहुत प्यार से कहा।
“नहीं, आप उनके सामने मत रहो, वे मुझे चिढ़ाते हैं,” अर्जुन ने जोर से डांटते हुए कहा।
“क्या हुआ अर्जुन, क्यों चिल्ला रहे हो?” निखिल की पत्नी प्रिया ने किचन से ही आवाज लगाई।
“देखो न माँ, ये दादी यहीं ड्राइंग रूम में बैठी हैं और मेरे दोस्त आ रहे हैं,” अर्जुन ने शिकायत भरे लहजे में कहा।
“माँ जी, आप ऊपर चली जाओ, क्यों हम लोगों को लजवाती हो,” प्रिया ने बेटे का पक्ष लेते हुए कहा।
बेचारी सुनीता चुपचाप उठकर जी हांथ के सहारे ऊपर जाने लगी। कमर झुकी होने के कारण उन्हें ऊपर चढ़ने में बहुत परेशानी हो रही थी और अकेले कोने वाले कमरे में जाकर बैठ गईं।
निखिल बाजू के कमरे से सब सुन रहा था। उसे कष्ट हो रहा था कि उसकी माँ को अपमानित होना पड़ रहा है किंतु वह असहाय था। अगर वह कुछ कहता तो पत्नी और बच्चे उसका विरोध करने लगते। दूसरी ओर उनके तर्क भी सही लगते थे। चूंकि वह एक प्रशासनिक अधिकारी था, उसका सामाजिक स्थान बहुत ऊंचा था, उसकी ससुराल भी एक उच्च परिवार में थी अतः वह चुपचाप इस तरह हर दिन अपनी माँ को अपमानित होते देखता रहता था।
रात को निखिल की पत्नी ने कहा, “सुनिए, अब कुछ करो। आज राकेश जी की पत्नी आई थीं। माँ जी अपनी देसी धुन में उनसे मिलीं। मुझे बहुत शर्म आ रही थी बताते हुए कि ये मेरी सास हैं। मैंने कह दिया कि दूर की रिश्तेदार हैं, इलाज कराने आई हैं।”
निखिल को रोना आ गया किंतु फिर भी वह किसी तरह चुप रहा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।
अपनी बहन की मानसिक स्थिति को सुनीता अच्छी तरह से जानती थीं और बेटे को कोई कष्ट न हो इसलिए वह हर बात को चुपचाप सह लेती थीं। निखिल बहुत उदास रहने लगा। एक तरफ परिवार और सामाजिक स्तर पर जीने की प्रतिबद्धता थी तो दूसरी ओर माँ।
आखिर माँ से अपने बेटे की यह हालत नहीं देखी गई। एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, “निखिल, बहुत दिन हो गए हैं, मैं अपने गांव जाना चाहती हूँ। मुझे वहां पहुंचा दो, मेरा यहाँ मन नहीं लग रहा।”
“किंतु माँ वहाँ तो कोई नहीं है, तुम्हारी देखभाल कौन करेगा?” निखिल ने आश्चर्य से पूछा।
“अरे, सब गांव वाले तो हैं और तुम्हारे मामाजी भी उसी गांव में रहते हैं। और फिर हम सारी व्यवस्थाएं कर आएंगे न,” प्रिया को जैसे मन की मुराद मिल गई हो।
“हाँ बेटा, बहू सही कह रही है,” सुनीता ने लंबी सांस लेते हुए कहा।
निखिल जानता था कि गांव में माँ की देखभाल करने वाला कोई नहीं है, लेकिन अपनी पत्नी की जिद के कारण वह अपनी माँ को छोड़ने पर विवश हो गया।
माँ को गांव छोड़कर आते वक्त उसे दया आ रही थी तथा अपनी बेवशी पर गुस्सा भी आ रहा था, किंतु परिवार, पत्नी और समाज में उसके इन मनोभावों को दबा दिया और वह सुकून-सा महसूस करने लगा।
कुछ दिनों के बाद उसके चाचा, जो अमेरिका में रहते थे, आने वाले थे। जब निखिल बहुत छोटा था, उसके पिता जीवित थे तब भारत आए थे और उसके बाद वे अधारणीय हो गए थे।
पूरा परिवार और आस-पड़ोस बहुत उत्साहित था। अमेरिका से निखिल के डॉ. चाचा आ रहे थे। डॉ. रमेश ने जैसे ही घर में कदम रखा, सबने मिलकर बहुत उत्साह से उनका स्वागत किया।
“क्यों निखिल भाभी नहीं दिख रही, कहां हैं?” डॉ. रमेश ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
“जी, वे गांव में रहती हैं, यहाँ उनका मन नहीं लगा,” प्रिया ने सपाट लहजे में उत्तर दिया।
डॉ. रमेश ने निखिल की ओर देखा तो निखिल ने अपनी आंखें झुका लीं।
डॉ. रमेश सब समझ गए। बोले, “कल हम भाभी से मिलने गांव चलेंगे सब लोग।”
दूसरे दिन सभी लोग गांव के घर में पहुंचे। देखा कि सुनीता को बहुत तेज बुखार है और वह पलंग पर असहाय पड़ी है। डॉ. रमेश दौड़कर सुनीता के पास गए। उनके पैर छूकर रोने लगे। सुनीता की यह हालत उनकी कल्पना से परे थी।
“वाह बेटा निखिल, तूने तो नाम उजागर कर दिया। अपनी माँ की यह हालत देखकर तुझे तो शर्म भी नहीं आ रही होगी,” डॉ. रमेश ने निखिल को लगभग डांटते हुए कहा।
“नहीं देवरजी, निखिल का कोई दोष नहीं है, मैं खुद गांव आई थी,” सुनीता ने अपने बेटे का बचाव किया।
“मुझे सब पता चल गया भाभी, आप चुप रहिए।”
“क्यों बहु, तुम्हें अपनी सास की कुरूपता पसंद नहीं है। समाज में तुम्हें नीचा देखना पड़ता है, है ना?” डॉ. रमेश ने प्रिया की ओर व्यंग से देखा।
प्रिया निरुत्तर होकर निखिल को देखने लगी।
“आज तुम जिस सामाजिक स्तर पर हो, वह इन्हीं के संघर्षों की देन है और बेटा निखिल, तुम्हें शायद मालूम नहीं होगा कि बचपन में जब तुम 1 साल के थे तब छत से नीचे गिरने के कारण तुम्हारी एक आंख फूट गई थी और तुम्हारी रीढ़ की हड्डी में भी समस्या थी। तब तुम्हारी इस कुरूप माँ ने अपनी एक आंख और अपना बोन मेरो तुम्हें देकर इतना सुंदर स्वरूप दिया था।
प्रिया बेटा, इतने सालों तक संघर्ष करके बेटे को प्रशासनिक अधिकारी बनाने वाली इस संघर्षशील औरत की तुम लोगों ने यह दशा कर दी। तुम्हें ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा,” डॉ. रमेश की आंखों से अश्रुओं की जलधारा बह रही थी।
“अब भाभी, आप मेरे साथ अमेरिका जाएंगी। यहाँ इन स्वार्थी लोगों के बीच नहीं रहेंगी,” डॉ. रमेश ने सुनीता से कहा।
निखिल को तो काटो तो खून नहीं था। डॉ. रमेश ने जो राज बताया उसके बाद तो निखिल को यहीं लग रहा था कि उससे ज्यादा पापी इंसान इस दुनिया में कोई और है ही नहीं। वह दौड़ता गया और माँ सुनीता के कदमों से लिपट गया। “माँ, मेरा अपराध अक्षम्य है। मैं जान-बूझकर चुप्पी साधे रहा। आपका अपमान करवाता रहा। अब सिर्फ आप ही उस घर में मेरे साथ रहेंगी और कोई नहीं,” निखिल ने आग्नेध दृष्टि से अपनी पत्नी और बच्चों को देखा।
प्रिया को भी बहुत पश्चाताप हो रहा था किंतु उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह सुनीता से आंख मिलाए।
सुनीता ने प्रिया की मनःस्थिति को समझकर उसे पुचकारते हुए अपने पास बुलाया और निखिल को डांटते हुए कहा, “खबरदार, जो मेरी बहु को मुझसे अलग करने की कोशिश की तो तुझे ही घर से बाहर निकाल दूंगी।”
प्रिया और बच्चों ने सुनीता के पैर पड़ते हुए अपने व्यवहार पर माफी मांगी और माँ के हृदय ने सबको माफ कर दिया।
स्वार्थ और दिखावे से सच्चे रिश्ते नहीं बनते।
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