घूँघट परंपरा

शुरुआत में, जब मैं अपने ससुराल आई थी, तो मुझे एक अनकही परंपरा का सामना करना पड़ा। हर बहू को अपनी दादी सास के सामने घूँघट निकालना पड़ता था। यह परंपरा इतनी गहरी थी कि परिवार के किसी भी सदस्य ने इस पर कभी सवाल नहीं उठाया था। मैं भी इसी परंपरा के अनुसार घूँघट में ही रहती थी, भले ही यह मेरे लिए कितना ही असहज क्यों न हो।

एक दिन, जब हम सभी गाँव में एक पारिवारिक समारोह के लिए गए थे, दादी सास ने मुझसे शिकायत की कि मैं काम खत्म करने के बाद अपने कमरे में चली जाती हूँ और उनके पास नहीं बैठती। दादी ने शिकायत की कि मैं पारिवारिक परंपराओं का पालन नहीं कर रही हूँ। मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “इस घूँघट में मैं आपसे कैसे बात कर सकती हूँ?”

दादी ने जवाब दिया, “बाकी सब तो आसानी से बातचीत कर लेती हैं, तुम्हें क्या दिक्कत है?”

मैंने उनकी बात मानते हुए कहा, “अगर आप बिना घूँघट के बात करें, तो क्या समस्या होगी?”

दादी उस समय अच्छे मूड में थीं। यह मौका देखकर मैंने अपनी बात रखने का निर्णय किया। मैंने कहा, “दादी, क्या हम इस घूँघट की परंपरा को बंद नहीं कर सकते? हमें इन पुरानी परंपराओं को अपने कंधों पर ढोने की जरूरत नहीं है।”

दादी ने जवाब दिया, “घूँघट तो घर की इज्जत होती है। इससे बड़ों का मान-सम्मान बना रहता है।”

मैं जानती थी कि दादी की पूरी ज़िंदगी ऐसी ग़ैरज़रूरी परंपराओं को निभाने में बीती है, लेकिन मैं एक कोशिश करना चाहती थी। मैंने कहा, “यदि इज्जत की बात है, तो हर सदस्य को घूँघट में रहना चाहिए। इज्जत केवल एकतरफ़ा क्यों हो? और जहाँ तक मान-सम्मान की बात है, मैंने कई बहुओं को घूँघट में अपने बड़ों पर चीखते-चिल्लाते देखा है। इज्जत और मान-सम्मान दिल से दिए जाते हैं, घूँघट से नहीं।”

हमारी चर्चा जारी थी कि दादी को किसी ने आवाज़ दी, और उन्होंने वहाँ से उठकर चले जाने का निर्णय किया। जाते हुए उन्होंने बड़बड़ाया कि घूँघट तो निकालना ही पड़ेगा, ऐसा नहीं चलेगा।

बात आयी-गई हो गई।

कुछ दिन बाद, मैं अपने मायके चली गई, जो मेरे ससुराल से करीब पाँच किलोमीटर दूर था। एक दिन, मुझे फोन आया कि दादी की तबियत बहुत खराब है। मैं तुरंत अपने ससुराल की ओर निकल पड़ी। वहाँ जाकर देखा कि दादी बिस्तर पर लेटी हुई थीं। दादाजी ने डॉक्टर को बुलाया था, और डॉक्टर ने कहा कि दादी को तुरंत अस्पताल ले जाना होगा। दादाजी ड्राइवर के लिए फोन घुमा रहे थे। मैंने अंदर से गाड़ी की चाबी ली और गाड़ी को घर के पास ले आई। दादाजी को थोड़ी चिंता थी कि मैं गाड़ी चला सकूँगी या नहीं, क्योंकि उन्होंने कभी मुझे ड्राइव करते नहीं देखा था। उन्होंने मुझे सिर्फ घूँघट में काम करते ही देखा था, इसलिए उनका डर जायज़ था।

दादी को बिस्तर पर से उठाकर मैंने अपनी गोद में ले लिया और गाड़ी की पिछली सीट पर लिटा दिया। मैंने दादाजी से कहा, “आप घर पर ही रहें, मैं दादी को अस्पताल ले जाती हूँ।” दादाजी अब भी हैरान थे क्योंकि उन्होंने मेरी आवाज़ भी कभी नहीं सुनी थी।

आप सोच रहे होंगे कि यह किस ज़माने की बात हो रही है। विश्वास कीजिए, यह आज भी कई गाँवों में होता है। राजस्थान के कई गाँवों में लोग अब भी पुरानी दक़ियानूसी रीतिरिवाजों में उलझे हुए हैं।

खैर, मैं दादी को अस्पताल लेकर आई। हमारे गाँव का सबसे नजदीकी अस्पताल था, इसलिए मैं उन्हें वहीं ले आई। अस्पताल में ज़्यादातर लोग मेरे परिवार के जानने वाले थे, जिससे प्रॉसेस में ज्यादा समय नहीं लगा। मैंने डॉक्टर और नर्स से दवाइयाँ देने का समय और तरीका समझा। दादी की नज़र मेरी ओर थी। एक ड्रिप चढ़ाने के बाद दादी ने आराम से कार में बैठी। लगातार पाँच दिनों तक मैं दादी को अस्पताल ले गई। एक हफ्ते में दादी पूरी तरह ठीक हो गईं।

इस दौरान, दादी को दवाई देते हुए और अस्पताल ले जाते हुए, मैंने घूँघट रखना ही भूल गई थी, और दादी ने भी कोई आपत्ति नहीं जताई। धीरे-धीरे, कई छोटी-छोटी चीज़ें बदलने लगीं। जैसे, “लड़के घर का काम नहीं करते” की पुरानी सोच अब बदलने लगी। दादी बेहिचक अपने पोते आरव से कह देती हैं कि मेरे लिए पोहे या खमण बना दो। अब हम सभी एक साथ बैठकर बातें करते हैं और हँसते-खिलखिलाते हैं।

आज यह कहानी याद आ गई जब एक दोस्त ने मुझसे कहा, “तुम तो बहुत लकी हो।” मैं उसे बताना चाहती थी कि लकी होने के लिए बहुत संयम और साहस की आवश्यकता होती है। बदलाव कभी भी अचानक नहीं आता। खुद को और दूसरों की सोच को बदलने में कई साल लग जाते हैं, तब कहीं जाकर छोटे-छोटे बदलाव देखने को मिलते हैं।